Tuesday, October 20, 2009

ये शहर

ये शहर जहां इंसान को इंसान का है डर
खतरा है जिन्दगी से यहां मौत का भी डर ।
उम्मीद के गुलशन से सजाया गया तो है
हर खुशबू ए आलम से बसाया गया तो है
ऐसा कोई गुलाब नहीं जो नहीं यहां
ऐसा फरेब और मिलेगा भला कहां ?
हर ज़र्रा बदमिज़ाज़ ,दग़ाबाज़ हर डगर।
हर चेहरा नेमते लिए रंगीन खुशमिजाज
आंखें कि हर हसीन को बना रही है ताज
शीरीं जुबान लब पै तबस्सुम के काफिले
रिस्ता लगे जनम का एक बार के मिले
फिर क्यों न लगे बोलो इस अंदाज को नजर?
यह शहर क्या है भूख की पुस्तैनी रियासत
खुशहाली के वर्षों से चली आई अदावत
मधुमास का होता है कुछ दल्टा असर यहां
बस इसलिए रक्षित है हरेक गाम पै खि़जां
फितरत ही कुछ ऐसी है रास आए है क़हर।
केवल उन्हें बसा रहे हैं इस शहर में हम
जो जुल्म से डरते हैं या करते हैं जो सितम
कोई जगह नहीं है यहां उनके वास्ते
जो पूछते है किस तरफ जाते हैं रास्ते
इस इंतजाम का है बड़ी दूर तक असर।
कुछ चीज आपके ज़हन में रहनी चाहिए
जो वक़्त की सच्चाइयां है सहनी चाहिए
हम लोग हो गए हैं नपुंसक खुदाक़सम
शिकवा न शिकायत न किसी बात का है ग़म
खुशहाल तो बेहतर हों बहरहाल हैं बेहतर।
नादान तुम नहीं कि स्वाभिमान को डरो
इस हाल में नहीं हो कि अपमान को डरो
हर तरफ की मक्कारियों की धूमधाम है
अब अक्लमंदी ये है कि इंसान को डरो
इस दौर का खुदा नाखुदा हो गया है डर।
मतलब की बात ये है कि मतलब जुबां रहो
बेशक बुरे बदनाम रहो बदजुबां रहो
रीढ़ें झुकाए रखने में हो जाना है अभ्यस्त
लोगों को चाहिए सलामपोश खुदपरस्त
सर बेचकर मिलता है शहंशाह का मेहर।

नोटः यह गीत किसी व्यक्ति या शहर पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं है।
-युधिष्ठिर ,सबेरसंकेत ,राजनांदगांव, 78-79

प्रस्तुति: वेणुकुमार

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