Tuesday, October 27, 2009

कहां गए वो पागल बादल

कहां गए वो पागल बादल ?

आसमान पर छाने वाले ,
सूरज को ढंक जाने वाले ,
दिन को रात बनाने वाले ,
मृगनयनी की आंख का काजल ।
-कहां गए वो पागल बादल ?

मिट्टी को महकाने वाले ,
नई पौद उकसाने वाले ,
तपती तपन बुझाने वाले ,
मजदूरों की टाट की छागल ।
- कहां गए वो पागल बादल ?

तरसे तो फिर बरसे झम झम ,
डाली डाली झूमी छम छम ,
धूम मचाते बच्चे धम धम ,
बुड्ढों की तेवरियों में बल ।
- कहां गए वो पागल बादल ?

गली गली बन जातीं नदियां ,
रेलों में बह जातीं बदियां ,
बीत गईं वो सादी सदियां ,
पत्थर पत्थर पथ में छल-दल ।
- कहां गए वो पागल बादल ?

बाड़ी बाड़ी खूब सजाते ,
आंगन आंगन फूल खिलाते ,
खेतों खेतों हंसते गाते ,
लिए आंख में करुणा का जल ।
- कहां गए वो पागल बादल ?

वो यौवन थे , वो सावन थे ,
वो जीवन थे , वो साजन थे ,
वो थे तो दिन मनभावन थे ,
उनकी याद है हर क्षण ,हर पल ।
- कहां गए वो पागल बादल ?

Friday, October 23, 2009

इस इतिहास में जिसमें सबकी पीठें घायल

पेड़ों पर गाऊं , नदियों पर छंद लिखूं !
या विघ्न-अभय महलों पर फेंक कमंद लिखूं ?

जब उधर भूख पर नई कथा बनती हो
मेरे विलास की रात इधर मनती हो
मैं इतना कभी तटस्थ नहीं हो सकता
तुम सुनो विषमता सुनो अगर सुनती हो
आहत पैरों तपती रेतों जब झुलस गया
तब क्या पपड़ल होंठों से रस मकरंद लिखूं !

है उधर तनी पीठों के पीछे गादी
इस तरफ सिर्फ रीढ़ों की बर्बादी
सर कहां उठे छत घुटनों से नीचे है
क्या जाने कैसे यहां बसी आबादी
कल यहां जले घर ,लुटीं औरतें ,युवक मरे
कैसे धुंधयाती बस्ती को सानंद लिखूं ?

ले गए लूटकर घर की जो मर्यादा
था अलंकरण का उन्हीं स्वजन का वादा
पूछे वजीर से कौन ,कहां हंै हाथी घोड़े
राजा खुद ही जहां बना हो प्यादा
इस इतिहास में जिसमें सबकी पीठें घायल
किसे मैं राणा और किसे जयचंद लिखूं ?
51183/81283

Wednesday, October 21, 2009

किन्तु गंगा लापता है

अरे कितनी घनी चुप्पी !
धूप कितनी खिल रही है
फिर भी कैसी लुका छुप्पी ?

बोलती कुछ भी नहीं है
छू रही लेकिन हवा तन
आ रही है सांस चुपके
मद सुगंधित अनमनापन
देह भी शायद अपरिचित
नेह विरहित दिया बत्ती
आह कितनी घनी चुप्पी !

हाथ अपना हाथ में है
और तो कोई नहीं है
सिर्फ चलने की ललक है
यत्न जड़ अब भी वहीं है
भीगे नभ पर इंद्रधनु है
शुष्क है हर फूल पत्ती।
तोड़ दो यह विवश चुप्पी।

बन गये हैं मन हिमालय
किन्तु गंगा लापता है
घाट सारे बह गए हैं
कूल भयसे कांपता है
धार पतली हो रही है
मिट रही है रत्ती रत्ती।
बोल दो दो बोल चुप्पी।
22.10.09

Tuesday, October 20, 2009

ये शहर

ये शहर जहां इंसान को इंसान का है डर
खतरा है जिन्दगी से यहां मौत का भी डर ।
उम्मीद के गुलशन से सजाया गया तो है
हर खुशबू ए आलम से बसाया गया तो है
ऐसा कोई गुलाब नहीं जो नहीं यहां
ऐसा फरेब और मिलेगा भला कहां ?
हर ज़र्रा बदमिज़ाज़ ,दग़ाबाज़ हर डगर।
हर चेहरा नेमते लिए रंगीन खुशमिजाज
आंखें कि हर हसीन को बना रही है ताज
शीरीं जुबान लब पै तबस्सुम के काफिले
रिस्ता लगे जनम का एक बार के मिले
फिर क्यों न लगे बोलो इस अंदाज को नजर?
यह शहर क्या है भूख की पुस्तैनी रियासत
खुशहाली के वर्षों से चली आई अदावत
मधुमास का होता है कुछ दल्टा असर यहां
बस इसलिए रक्षित है हरेक गाम पै खि़जां
फितरत ही कुछ ऐसी है रास आए है क़हर।
केवल उन्हें बसा रहे हैं इस शहर में हम
जो जुल्म से डरते हैं या करते हैं जो सितम
कोई जगह नहीं है यहां उनके वास्ते
जो पूछते है किस तरफ जाते हैं रास्ते
इस इंतजाम का है बड़ी दूर तक असर।
कुछ चीज आपके ज़हन में रहनी चाहिए
जो वक़्त की सच्चाइयां है सहनी चाहिए
हम लोग हो गए हैं नपुंसक खुदाक़सम
शिकवा न शिकायत न किसी बात का है ग़म
खुशहाल तो बेहतर हों बहरहाल हैं बेहतर।
नादान तुम नहीं कि स्वाभिमान को डरो
इस हाल में नहीं हो कि अपमान को डरो
हर तरफ की मक्कारियों की धूमधाम है
अब अक्लमंदी ये है कि इंसान को डरो
इस दौर का खुदा नाखुदा हो गया है डर।
मतलब की बात ये है कि मतलब जुबां रहो
बेशक बुरे बदनाम रहो बदजुबां रहो
रीढ़ें झुकाए रखने में हो जाना है अभ्यस्त
लोगों को चाहिए सलामपोश खुदपरस्त
सर बेचकर मिलता है शहंशाह का मेहर।

नोटः यह गीत किसी व्यक्ति या शहर पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं है।
-युधिष्ठिर ,सबेरसंकेत ,राजनांदगांव, 78-79

प्रस्तुति: वेणुकुमार

Sunday, October 18, 2009

ऐसे बनी ग़ज़ल ऐसे गीत बने

प्रीत हुई तो दुख ने घेरा ,दोनों मीत बने ,
सचमुच ऐसे बनी ग़ज़ल ऐसे ही गीत बने।

कब देखा करते हैं सपने , क्रूर-सत्य ,आघातें ,
कब पक्षी बाजों के भय से नभ पर ना उड़ पाते ,
कब खिलने से फूल कभी करते हैं आनाकानी
जितनी धूप दहकती जंगल उतने ही हरियाते।
घायल सांसें इस आशा से टूट नहीं पातीं
हारी हुई बाजियां शायद इक दिन जीत बनें।

बोलों के पीछे के छल को देखें छल-वाले
जिनके दिल हैं साफ वहीं कहलाते दिलवाले
दलदल में खिलते हैं फिर भी दुनिया देख रही
अब भी धूमधाम से आते पर्व कमल-वाले
खिंचकर तारोंतार हो गईं पिटी हुई खालें
गले लिपटनेवाले ही तब सुर-संगीत बने।

अंदर ऊगी हुई हंसी ही बाहर खिलती हैं
मोती जननेवाली सीपी बिरली ही मिलती हैं
दुनिया दूकानों में लटके हुए मुखौटों जैसी
जो जमीन में गहरी होतीं जड़ं कहां हिलती हैं ?
गहरे जाकर ही मिलते हैं ठण्डे मीठे सोते
जो पल मन को छूकर बीते ,अमर-अतीत बने।