अरे कितनी घनी चुप्पी !
धूप कितनी खिल रही है
फिर भी कैसी लुका छुप्पी ?
बोलती कुछ भी नहीं है
छू रही लेकिन हवा तन
आ रही है सांस चुपके
मद सुगंधित अनमनापन
देह भी शायद अपरिचित
नेह विरहित दिया बत्ती
आह कितनी घनी चुप्पी !
हाथ अपना हाथ में है
और तो कोई नहीं है
सिर्फ चलने की ललक है
यत्न जड़ अब भी वहीं है
भीगे नभ पर इंद्रधनु है
शुष्क है हर फूल पत्ती।
तोड़ दो यह विवश चुप्पी।
बन गये हैं मन हिमालय
किन्तु गंगा लापता है
घाट सारे बह गए हैं
कूल भयसे कांपता है
धार पतली हो रही है
मिट रही है रत्ती रत्ती।
बोल दो दो बोल चुप्पी।
22.10.09
Wednesday, October 21, 2009
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