प्रीत हुई तो दुख ने घेरा ,दोनों मीत बने ,
सचमुच ऐसे बनी ग़ज़ल ऐसे ही गीत बने।
कब देखा करते हैं सपने , क्रूर-सत्य ,आघातें ,
कब पक्षी बाजों के भय से नभ पर ना उड़ पाते ,
कब खिलने से फूल कभी करते हैं आनाकानी
जितनी धूप दहकती जंगल उतने ही हरियाते।
घायल सांसें इस आशा से टूट नहीं पातीं
हारी हुई बाजियां शायद इक दिन जीत बनें।
बोलों के पीछे के छल को देखें छल-वाले
जिनके दिल हैं साफ वहीं कहलाते दिलवाले
दलदल में खिलते हैं फिर भी दुनिया देख रही
अब भी धूमधाम से आते पर्व कमल-वाले
खिंचकर तारोंतार हो गईं पिटी हुई खालें
गले लिपटनेवाले ही तब सुर-संगीत बने।
अंदर ऊगी हुई हंसी ही बाहर खिलती हैं
मोती जननेवाली सीपी बिरली ही मिलती हैं
दुनिया दूकानों में लटके हुए मुखौटों जैसी
जो जमीन में गहरी होतीं जड़ं कहां हिलती हैं ?
गहरे जाकर ही मिलते हैं ठण्डे मीठे सोते
जो पल मन को छूकर बीते ,अमर-अतीत बने।
Sunday, October 18, 2009
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